⚫ फिल्म समीक्षा हाइलाइट्स
- **मुख्य विषय:** फिल्म **दलित एथलीटों** द्वारा खेल में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए चुकाई जाने वाली भारी कीमत को दर्शाती है।
- **निर्देशक मारी सेल्वाराज:** उन्होंने अपने नायक के माध्यम से मार्मिक सवाल पूछा है: किसे केवल **जुनून** पर ध्यान केंद्रित करने का विशेषाधिकार है, और किसे सपनों के लिए लड़ते हुए **जातिगत पदानुक्रम** से जूझना पड़ता है?
- **कहानी:** कहानी तमिलनाडु के दक्षिणी जिले के एक दलित व्यक्ति ‘किटान’ (ध्रुव विक्रम) के 1994 के एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने की यात्रा पर केंद्रित है।
- **ध्रुव विक्रम:** उन्होंने ‘किटान’ को ईमानदारी और **संवेदनशीलता** से निभाया है, जो दर्शकों का समर्थन आसानी से जीत लेता है।
- **सामाजिक टिप्पणी:** फिल्म में जातिगत वर्चस्व, पुरानी दुश्मनी और **दलितों की प्रतिभा** पर वर्चस्ववादी जातियों की हिंसक प्रतिक्रियाओं को उजागर किया गया है।
निर्देशक मारी सेल्वाराज की नई फिल्म ‘Bison Kaalamaadan‘ एक ऐसी मार्मिक कहानी प्रस्तुत करती है जो भारतीय खेल जगत के एक गहरे और कम चर्चित पहलू को उजागर करती है। यह फिल्म विशेष रूप से दलित एथलीटों द्वारा खेल में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए चुकाई जाने वाली सामाजिक और व्यक्तिगत कीमत की पड़ताल करती है। यह रिव्यू जोर देता है कि कैसे नायक को अपने जुनून के साथ-साथ समाज की जड़ें जमा चुकी जातिगत पदानुक्रम से भी लड़ना पड़ता है।
जातिवाद और जुनून का टकराव
फिल्म की शुरुआत 1994 के एशियाई खेलों से होती है, जहां नायक किटान (ध्रुव विक्रम) भारत-पाकिस्तान कबड्डी मैच में बेंच पर है। इसके बाद कहानी हमें कुछ साल पहले तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले में ले जाती है।
समीक्षा के अनुसार, मारी सेल्वाराज ने अपनी पिछली फिल्मों की तरह, इस फिल्म को भी एक गहन जातिवादी ग्रामीण दक्षिण के माहौल में स्थापित किया है। किटान (जो केवल कबड्डी से प्रेम करता है) को जातिगत वर्चस्व, पुरानी दुश्मनी और पारिवारिक झगड़ों के कारण कबड्डी के मैदान में प्रवेश करने से भी रोका जाता है। ऊंची जाति के लोग बार-बार किटान को उसकी प्रतिभा के बावजूद उसकी जाति पहचान तक सीमित कर देते हैं।
फिल्म समीक्षा: ‘Bison Kaalamaadan’; मारी सेल्वाराज की असाधारण फिल्म में ध्रुव विक्रम ने लगाई आग
निर्देशक का मार्मिक सवाल
फिल्म के माध्यम से मारी सेल्वाराज एक मार्मिक सवाल पूछते हैं: किसके पास सिर्फ अपने जुनून पर ध्यान केंद्रित करने का विशेषाधिकार है, और किसे अपने सपनों के लिए लड़ते हुए, योग्यता की कल्पना की गई पदानुक्रमों (imagined hierarchies of worth) से जूझना पड़ता है? किटान को अपने आस-पास के सामाजिक-राजनीतिक तूफ़ान की परवाह नहीं है, लेकिन जातिवाद हर बार उसे कबड्डी के मैदान से दूर खींच लेता है। किटान का अपने पिता वेलुसामी (पासुपति) को देखना, भारत के कई दलित खिलाड़ियों की कहानी है।
फिल्म यह भी दर्शाती है कि दलितों की उत्कृष्टता को वर्चस्ववादी जातियों की असुरक्षा के रूप में देखा जाता है। पिता का डर, जो एक दलित खिलाड़ी दोस्त की हत्या और उसकी मूंछें क्रूरता से हटाए जाने को याद करता है, दलित प्रतिभा के प्रति वास्तविक दुनिया की हिंसक प्रतिक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
ध्रुव विक्रम और फिल्म का निष्कर्ष
ध्रुव विक्रम ने किटान के किरदार में ईमानदारी और संवेदनशीलता दिखाई है। हालांकि उन्हें धनुष (कर्णन में) जैसा प्रदर्शन नहीं माना गया है, लेकिन उनकी भूमिका दर्शकों की एकजुटता आसानी से जीत लेती है। संगीतकार निवास के. प्रसन्ना का संगीत भी फिल्म की राजनीति से अविभाज्य है और कहानी कहने की परतें जोड़ता है।
निष्कर्ष यह है कि ‘Bison Kaalamaadan’ उन सामाजिक लागतों का पता लगाती है जो दलित एथलीटों को अपनी प्रतिभा साबित करने के लिए चुकानी पड़ती है।


















2 thoughts on “Bison’; मारी सेल्वाराज की फिल्म दिखाती है, दलित एथलीटों को खेल में सफलता के लिए क्या कीमत चुकानी पड़ती है”